हमारी प्रेरणा

वीतराग परमात्मा बनने के मार्ग पर चलने वाले इस पथिक का प्रत्येक क्षण जागरूक व आध्यात्मिक आनंद से भरपूर होता है। उनका जीवन विविध आयामी है। उनके विशाल व विराट व्यक्तित्व के अनेक पक्ष हैं तथा सम्पूर्ण भारतवर्ष उनकी कर्मस्थली है। उनका बाह्य व्यक्तित्व सरल, सहज, मनोरम है किंतु अंतरंग तपस्या में वे वज्र से कठोर साधक हैं। इस युग में ऐसे संतों के दर्शन अलभ्य है। ऐसे महापुरुष प्रकाश में नहीं आते, आना भी नहीं चाहते, प्रकाश प्रदान में ही उन्हे रस आता हैं। उनका कथन किसी श्लोक से कम नहीं, उनका लेखन किसी दर्शन से कम नहीं, और उनका जीवन किसी शास्त्र से कम नहीं जिनका हाथ ही पवित्र पात्र है, पृथ्वी ही जिनकी शैय्या है जिन्हें अप्राप्त की चाह नहीं और प्राप्त का मोह नहीं जो दिगंबर है। ऐसे रोम रोम में पुरुषार्थ और परोपकार का सागर लिए अंतर्यात्री महापुरूष आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज को बारम्बार नमोस्तु, नमोस्तु, नमोस्तु…

परिचय
पिता श्रीश्री मल्लप्पाजी अष्टगे (मुनिश्री मल्लिसागरजी)
माता श्रीश्रीमती श्रीमंतीजी (आर्यिकाश्री समयमतिजी)
भाई/बहनचार भाई, दो बहन
जन्म स्थानचिक्कोड़ी (ग्राम-सदलगा के पास), बेलगाँव (कर्नाटक)
जन्म तिथिआश्विन शुक्ल पूर्णिमा (शरद पूर्णिमा) वि.सं. 2003, 10-10-1946, गुरुवार, रात्रि में 12:30 बजे
जन्म नक्षत्रउत्तरा भाद्र
शिक्षा9वीं मैट्रिक (कन्नड़ भाषा में)
ब्रह्मचर्य व्रतश्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, चूलगिरि (खानियाजी), जयपुर(राजस्थान)
प्रतिमासात (आचार्यश्री देशभूषणजी महाराज से)
स्थल1966 में श्रवण बेलगोला, हासन (कर्नाटक)
मुनि दीक्षा स्थलअजमेर (राजस्थान)
मुनि दीक्षा तिथिआषाढ़, शुक्ल पंचमी वि.सं., 2025, 30-06-1968, रविवार
आचार्य पद तिथिमार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया-वि.सं. 2029, दिनांक 22-11-1972, बुधवार
आचार्य पद स्थलनसीराबाद (राजस्थान) में, आचार्यश्री ज्ञानसागरजी ने अपना आचार्य पद प्रदान किया।
मातृभाषाकन्नड़

आप माता-पिता की द्वितीय संतान हो कर भी अद्वितीय संतान हैं। आपकी बाल्यावस्था अत्यंत रोचक एवं आश्चर्यकारी घटनाओं से भरी है। खेलकूद के स्थान पर स्वयं या माता-पिता के साथ मन्दिर जाना, धर्म-प्रवचन सुनना, शुद्ध सात्विक आहार करना, मुनि आज्ञा से संस्कृत के कठिन सूत्र एवं पदों को कंठस्थ करना आदि अनेक घटनाएँ मानो भविष्य में अध्यात्म मार्ग पर चलने का संकेत दे रही थीं। आप बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के धारी हैं। आपकी मातृभाषा कन्नड़ है। आपने कक्षा नवमीं तक मराठी माध्यम से अध्ययन किया।

9 वर्ष की उम्र में जैनाचार्य शान्तिसागर जी के कथात्मक प्रवचनों से वैराग्य का बीजारोपण हुआ, जो आगे चल कर ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर प्रस्फुटित हुआ। 20 वर्ष की उम्र में घर-परिवार के परित्याग का कठिन असिधारा व्रत ले निकल पड़े शाश्वत सत्य का अनुसन्धान करने के लिए। गुरुभक्ति-समर्पण से गुरुकृपा का प्रासाद पाकर 30 जून 1968 को अजमेर में सर्व पराधीनता को छोड़ दिगम्बर मुनि बनकर शाश्वत सत्य की अनुभूति में तपस्यारत हो गए। जो धरती/काष्ठ के फलक पर आकाश को ओढ़ते हैं। यथाजात बालकवत् निर्विकारी, अनियत विहारी, अयाचक वृत्ति के धनी, भक्तों के द्वारा दिन में एक बार दिया गया बिना नमक-मीठे के, बिना हरी वस्तु के, बिना फल-मेवे के सात्विक आहारदान ही लेते हैं, वो भी मात्र ज्ञान-ध्यान-तप-आराधना के उद्देश्य से। अहिंसा धर्म की रक्षार्थ अहर्निंश सजग, करुण हृदयी मुनिवर श्री अपने साथ में मात्र एक पिच्छी-कमण्डल रखते हैं इसके सिवा भौतिकता के रंच मात्र भी साधन नहीं रखते हैं।

आपके दीक्षित होते ही आपके माता-पिता एवं भाई-बहिनों ने भी आपके मार्ग का अनुसरण किया। यह इस सदी की प्रथम घटना है। जहाँ एक ही परिवार के आठ सदस्यों में सात सदस्य, सात तत्वों का चिंतन करते हुए मोक्ष मार्ग पर आरूढ़ हो गए।

आपने विशाल गुरूकुल का निर्माण करके गुरू आदेश शिरोधार्य किया। दीप से दीप जलते गए और अनेक जीवंत कृतियों-श्रमण-श्रमणियों का सृजन होता गया। आपके द्वारा 120 मुनि, 172 आर्यिका, 21 ऐलक, 14 क्षुल्लक, 3 क्षुल्लिकाएं, कुल 330 दीक्षाएँ दी गईं। इनके अतिरिक्त आपके निर्देशन में सहस्रार्ध बाल ब्रह्मचारी भाई-बहन साधना के क्रमिक सोपानों पर साधना को साध रहे हैं एवं आपश्री के निर्यापकाचार्यत्व में 30 से अधिक साधकों ने जीवन की संध्या बेला में आगमयुक्त विधि से सल्लेखना पूर्वक समाधि धारण कर जीवन के उद्देश्य को सार्थक किया है। तीर्थंकर प्रकृति के बंध के कारणभूत लोक कल्याण की भावना से अनुप्राणित होकर आपने अपने लोकोपकारी कार्यों हेतु अपनी प्रेरणा व आशीर्वाद प्रदान किया। जिनकी फलश्रुति हैं-

समाज के कल्याण के उद्देश्य से ऐसे और भी अनेकों कार्यों के लिए प्रेरणा देने वाले, सम्पूर्ण जगत के आप इकलौते और अलबेले संत हैं। जन-जन के कल्याण की भावना संजोए महान संत का हृदय पाश्चात्य संस्कृति के गर्त में समाती भारतीय संस्कृति को बचाने और भारत को वापस लौटाने के लिये तड़प उठा और उठाया उन्होंने बीड़ा और कर दिये कई अनोखे कार्य जैसे –

राष्ट्र और राष्ट्रभाषा के लिए एक पल में भगतसिंह की तरह हुँकार और अगले ही पल महात्मा गाँधी की तरह विदेशी भाषा को हटाने की अलख जगाना, दोनों आयामों को कहीं एक साथ देखना हो तो वह व्यक्तित्व हैं – “आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज” ।

आप करुणाहृदयी, दयालु, देशप्रेमी संत हैं, देश में बढ़ती बेरोजगारी एवं विदेशी परावलंबता को सुनकर गाँधी जी के विचारों का समर्थन करते हैं और सबको रोजगार मिले एवं देश स्वावलंबी बने इस दिशा में अहिंसक रोजगार की प्रेरणा देते हैं। आप उद्घोषणा करते हैं –

आप महावीर की तरह खिरने वाली वाणी में बुद्ध की तरह अदम्य शांति के साथ चंद पंक्तियों में प्लेटो, कबीर या अरस्तू से भी बढ़कर जीवन और दुनिया का सार कह देने वाले महाज्ञानी हैं। ज्ञान-ध्यान-तप के यज्ञ में आपने मूकमाटी जैसे क्रान्तिकारी, आध्यात्मिक, नैतिक, सामाजिक, सैद्धांतिक, पारमार्थिक महाकाव्य सहित अनेक काव्य-कृतियों का सृजन किया जिनका वर्णन अग्रांकित है –

तथा अल्पकाल में ही प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, अंग्रेजी, मराठी, बंगाली तथा कन्नड़ भाषा के मर्मज्ञ साहित्यकार के रूप में प्रसिद्ध हो गए।

भारतीय संस्कृति के उत्थान के लिए भारत की मूल रीढ़ शिक्षा के विषय पर आपके कुछ विचार अग्रांकित हैं-

आपके इन सर्वोदयी विचारों ने आपको सर्वोदयी संत के रूप में पहचान दी है। नवपीड़ी के लिए आप सशक्त प्रणेता के रूप में विचार प्रकट करते हैं। आपके सर्वोदयी राष्ट्रीय चिंतन से नवयुवा उत्साह, ऊर्जा, दिशाबोध पाकर निजजीवन को परोपकार में लगा रहे हैं।

कितना लिखा जाये आपके बारे में शब्द बौने और कलम पंगु हो जाती है, लेकिन भाव विश्राम लेने का नाम ही नहीं लेते। राष्ट्र, समाज एवं प्राणी मात्र के आप शुभंकर हैं। मोक्षाभिलाषिओं के लिए आप शीतल व निर्मल जल की धार हैं। आपका आभामंडल ऐसा है कि मुख से शब्द भी नहीं निकलते और दुनिया के कोने-कोने से भक्त उमड़ पड़ते हैं। अनेक बार दर्शनों के पश्चात् भी आपके दर्शन की प्यास लगी ही रहती है। आपको क्या कहूँ…! आप तो गतिशील साधक दिगम्बरत्वरूपी आकाश में विचरण करने वाले एक आध्यात्मिक सूर्य हैं । आप देश, काल, जाति, धर्म की सीमाओं से परे ऐसे विराट व्यक्तित्व हैं जिन्हें यह कालखंड तीर्थंकर-सम भगवन्त के रूप में याद रखेगा।